RSS Thoughts: भारतीय गणतंत्र और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
मृत्युंजय झा ( RSS कार्यकर्त्ता )
डॉ. श्रीरंग गोडबोले के विचार से – भारत में 26 जनवरी को प्रतिवर्ष ‘गणतंत्र दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। कम लोग इस तथ्य को जानते हैं कि 1930 से 1947 तक इसे ‘स्वतंत्रता दिवस’ के रूप में मनाया जाता था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (अब संघ) के आलोचक संगठन पर गणतंत्र दिवस से अलग रहने का आरोप लगाते हैं। 26 जनवरी 1930 का दिन था, जब पूर्ण स्वराज्य दिवस (स्व शासन का पूर्ण दिवस) मनाया गया था। 1950 के पश्चात यह दिन “गणतंत्र दिवस” के रूप में मनाया जाने लगा। 26 जनवरी, 1930 को संघ कहाँ था? पुनः 26 जनवरी, 1950 को वह कहाँ था? यह लेख संघ के अभिलेखागार में मौजूद समकालीन प्रलेखों और मराठी समाचार पत्र ‘केसरी’ में प्रकाशित समाचार सामग्री के आधार पर इन प्रश्नों के उत्तर देता है। इससे पहले हमें यह जानना होगा कि 26 जनवरी को ‘गणतंत्र दिवस’ के रूप में क्यों चुना गया था?
भारतीय गणतंत्र का जन्म कैसे हुआ !
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 ने अविभाजित भारत को 15 अगस्त, 1947 को दो स्वतंत्र उपनिवेशों -भारत और पाकिस्तान के रूप में विभक्त किया। भारत की संविधान सभा ने इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल से भारतीय डोमिनियन के विधायी कार्यों को ले लिया। इसने 26 नवंबर, 1949 को संविधान के प्रारूप को मंजूरी दे दी।
संविधान के प्रभावी होने के लिए एक प्रारंभ तिथि का चयन किया जाना शेष था। 1950 के प्रारंभ की किसी तिथि को चुनना स्पष्ट रूप से सुविधाजनक था।
नए वर्ष का पहला दिन चुनना पुराने शासकों की नकल करने जैसा होता। और जनवरी के अंतिम दिन का चयन गांधी की हत्या की तिथि के निकट होता जो उचित नहीं होता। ऐसे में प्रश्न यह था कि जनवरी में कोई अन्य तिथि कौन सी हो सकती है? 20 वर्ष पूर्व जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 26 जनवरी, 1930 को पूर्ण स्वराज्य दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया था, इसलिए इस तिथि को गणतंत्र दिवस के रूप में मनोनीत किया गया। (स्रोत – केसरी 27 जनवरी, 1950)।
पूर्ण स्वतंत्रता का भ्रम कैसे हुआ ?
पूर्ण स्वतंत्रता का स्वीकार कांग्रेस की दॄष्टि से भले ही ऐतिहासिक निर्णय हो लेकिन इससे पहले के 5 दशकों में सैकड़ों गुमनाम क्रांतिकारियों और उनके परिवारों को पूर्ण स्वतंत्रता के लिए मृत्यु, निर्वासन, कारावास और संपत्ति की जब्ती का सामना करना पड़ा थानेहरू ने क्रांतिकारियों के योगदान की हमेशा उपेक्षा की। इसलिए कांग्रेस और विशेषकर नेहरू के लिए महत्त्व की तिथि को गणतंत्र दिवस के रूप में निर्धारित किया गया। इस प्रकार से संप्रभु लोकतांत्रिक भारतीय गणराज्य का जन्म हुआ।
आनंद और आक्रोश की घटना हुई थी
नए गणतंत्र के जन्म का उल्लास मनाने के लिए 26 और 27 जनवरी 1950 को दो दिवसीय आनंदोत्सव की घोषणा की गई थी। भारतीय राजनीति के परिदृश्य में विभिन्न लोगों ने नए गणराज्य की स्थापना को कैसे देखा? अपने राजनीतिक प्रभुत्व को देखते हुए, कांग्रेस स्वाभाविक रूप से उत्साहित थी। गांधी हत्याकांड को लाठी की तरह उपयोग करते हुए, नेहरू अखिल भारत हिन्दू महासभा और संघ जैसे हिन्दू पुनरुत्थान में लगे समूहों को कुचलने में लगे हुए थे। राष्ट्रीय सहमति की यदि नेहरू की कोई परिकल्पना थी भी तो उसमें इन समूहों को कोई स्थान नहीं था।
हिन्दुत्व के अग्रणी नेता विनायक दामोदर सावरकर महात्मा गांधी हत्याकांड में अग्निपरीक्षा से गुजरे थे और एक साल से भी कम समय पहले ही जेल से रिहा हुए थे
। फिर भी, एक उल्लेखनीय बयान में, सावरकर ने कहा, “प्रत्येक नागरिक जिसकी अपनी मातृभूमि के प्रति निष्ठा संदेह से ऊपर है, बिना शर्त और पूरे दिल से है, वह ब्रिटिश गुलामी से अपनी मातृभूमि की मुक्ति के उपलक्ष्य में उस दिन राष्ट्रीय समारोह में खुशी से शामिल हुए बिना नहीं रह सकता। हम उस दिन प्रांत, व्यक्ति और पार्टी के अपने छोटे-छोटे झगड़ों को भुला दें और केवल एक और साझा मंच – अपने संकुचित मोर्चों को छोड़, एक मातृभूमि के मंच पर – दुनिया के सामने अपनी राष्ट्रीय जीत की घोषणा करें । (स्रोत – बॉम्बे क्रानिकल, 5 अप्रैल 1950 )
सावरकर जी ने अपनी सेवाएं नए राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद की इच्छा पर छोड़ दीं।
हिन्दू महासभा के उपाध्यक्ष और इसके संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष आशुतोष लाहिड़ी ने भारत की स्वतंत्रता के लिए अंडमान में कारावास झेला था। उन्होंने सभी स्थानीय हिन्दू सभा इकाइयों को नए संविधान को अपनाने से संबंधित उत्सवों में भाग लेने और सहयोग करने का आह्वान किया (स्रोत – केसरी, 24 जनवरी 1950)। 27 जनवरी को मुंबई में आयोजित एक बैठक में, हिन्दू महासभा की कार्यकारी समिति ने भारतीय गणराज्य के स्वागत का प्रस्ताव पारित किया (केसरी, 31 जनवरी 1950)
कुछ गुट और वर्गों में विवाद क्यों हुआ
नए गणतंत्र के जन्म से कुछ वर्गों में नाराजगी हुई। 26 जनवरी को मुंबई के काला चौकी क्षेत्र में कम्युनिस्टों ने विरोध रैली निकाली। जब पुलिस ने कम्युनिस्टों को वापस जाने के लिए कहा तो उन्होंने पुलिस पर एसिड बम फेंके । इसमें दो पुलिस इंस्पेक्टर्स को चोटें आईं। पुलिस ने चार राउंड गोलियां चलाईं, जिसमें आठ लोग घायल हुए। करीब 55 कम्युनिस्टों को गिरफ्तार किया गया (स्रोत – केसरी, 27 जनवरी 1950)। कम्युनिस्ट मुंबई के कोलाबा इलाके में आयोजित एक ध्वज-वंदन समारोह में पहुंचे और वहां एकत्रित लोगों से काले झंडे फहराने का आग्रह किया। इससे थोड़ी झड़प भी हुई (केसरी, 31 जनवरी 1950)।
केसरी ने प्रकाशित किया कि “26 जनवरी को फॉरवर्ड ब्लॉक, पीजेंट्स एंड वर्कर्स पार्टी और अन्य संगठनों के कार्यालयों पर काले झंडे फहराए जाने की घटनाएं हुईं
। कम्युनिस्टों ने मुंबई और कलकत्ता जैसे शहरों में भी उत्सव को खराब करने के घृणित प्रयास किए” (स्रोत – केसरी, 3 फरवरी 1950)
पूर्ण स्वतंत्रता के लिए कांग्रेस की गड़बड़ राह
अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सचिव जवाहरलाल नेहरू ने 27 दिसंबर 1927 को कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में स्वतंत्रता का प्रस्ताव रखा। प्रस्ताव इस प्रकार पढ़ा गया। भारत की स्वतंत्रता और ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार नेहरू द्वारा पेश किया गया प्रस्ताव गांधी जी को पसंद नहीं था अब तक, औपनिवेशिक स्व-शासन कांग्रेस का लक्ष्य था, जिसे कांग्रेस अध्यक्ष मुख्तार अहमद अंसारी ने गांधी के शब्दों में स्पष्ट किया था – “यदि संभव हो तो साम्राज्य के भीतर, यदि आवश्यक हो तो उसके बाहर” (स्रोत – मद्रास कांग्रेस रिपोर्ट, परिशिष्ट 1, पृ।3)
भारत के संविधान का भविष्य कैसे तैयार हुआ
कांग्रेस के लक्ष्य को लेकर 29 दिसंबर, 1928 से 1 जनवरी, 1929 तक कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में मतभेद उभरकर सामने आए। श्रीनिवास अयंगर, जवाहरलाल नेहरू और सुभाष बोस ने पूर्ण स्वतंत्रता के ध्येय का समर्थन किया, जबकि गांधी और कांग्रेस के निर्वाचित अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू डोमिनियन स्टेटस के पक्षधर थे। इसी डोमिनियन स्टेटस के आधार पर मोतीलाल नेहरू ने सर्व दलीय परिषद के अनुरोध पर भविष्य के भारत के संविधान को लेकर रिपोर्ट तैयार की थी। मोतीलाल नेहरू ने स्पष्ट कह दिया था कि यदि उन्हें अपनी रिपोर्ट के पक्ष में समर्थन नहीं मिलेगा तो वह कांग्रेस की अध्यक्षता नहीं करेंगे। गांधी जी ने बीच का रास्ता ढूंढा और यह प्रस्ताव दिया कि यदि यह 31 दिसंबर 1930 से पहले ब्रिटिश संसद द्वारा संविधान को स्वीकार न करने की स्थिति में कांग्रेस अपना अहिंसक असहयोग आंदोलन प्रारंभ करेगी (स्रोत – तेंदुलकर, पृ। 439-440।)